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जरूरतों का बोझ
मैले कुचैले धोती कुर्ते में एक बूढ़ा आदमी लकड़ियों और आटे दाल से लदी साइकिल को ले के सड़क के बीचों बीच खड़ा हो गया I वक्त था शाम का, सभी का अपने काम से लौटने का वक्त . उस बुजुर्ग का अचानक से बीच राह खड़े हो जाना आने जाने वाले राहगीरों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था I पर विडंबना यह है कि उस आकर्षण का कारण बुजुर्ग का उपहास का केंद्र बनना था ना कि बुजुर्ग के प्रति मानवीय संवेदना का होना I घोर आश्चर्य का विषय है कि कैसे लोगों को उस उपहासात्मक कृत्य के पीछे की वजह नहीं दिखी , किसी को उस बुजुर्ग की अवस्था नहीं नजर आई, किसी ने ये सोचने की जहमत नहीं उठाई कि क्या उम्र के उस पड़ाव तक पहुँचने पर खुद उनमे इतनी ताकत होगी कि वो अपने परिवार की जरूरतों का बोझ उठा सकें , क्या किसी को उस इंसान के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हुए थोड़ी भी शर्म नहीं आई , क्या पसीने से तर बतर उस बुजुर्ग का चेहरा कोई ना पढ़ पाया जिससे यह साफ़ झलक रहा था कि वह थक के चूर हो चुका है , उसमें साइकिल को आगे खींचने की बिल्कुल भी ताकत नहीं बची है I
चिंतन का विषय यह है कि आखिर हम किस आधुनिकता की होड़ में लगे हुए हैं , आने वाली पीढ़ी को हम क्या शिक्षा दे रहे हैं, क्या मानवीय गुणों की बलि चढ़ा कर ही हम आधुनिक बन पाएंगे I क्या हम अपने अंदर दया भावना को जागृत रखते हुए आगे नहीं बढ़ सकते , क्या हमारे शिक्षित होने का पैमाना हमारा व्यवहार नहीं .
जरुरत है इस बारे में पहल करने की. खुद के सामने या खुद के संज्ञान में घटित होने वाले किसी भी अनुचित घटना के प्रति मूकदर्शक बने रहना मनुष्य होने का सूचक नहीं I यदि हम अपनी संवेदनाओं को जीवित रखने के इस विचार को अपना लें तो निश्चय ही हमारी आने वाली पीढ़ी अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाएगी क्योंकि बच्चे वो नहीं सीखते जो हम उन्हें सिखाते हैं , बच्चे तो वो सीखते हैं जो वो हमें करता हुआ देखते हैं I